गुरुवार, 14 जुलाई 2011

मैं और मेरी तन्हाई ...

तन्हाई कभी-कभी ये आपको बहुत सुकून देती है तो कभी-कभी बहुत अखरती है. सबके बीच होकर भी जब आप तन्हा महसूस करो तो ये परेशानी है और जब कि किसी कि याद में तन्हा रहना चाहो तो शायद ये किसी नए रिश्ते की शुरुआत की आहट.
जब तन्हाई में हम किसी बारे में सोचते है तो एक अलग ही दुनिया में चले जाते है जहाँ ना तो किसी तरह के बंधन हैं और ना कि किसी तरह का संकोच. कभी-कभी ये तन्हाई भी इतनी ख़ुशी देती ही अपनों का साथ भी कम लगने लगता है, तो कभी-कभी इस तन्हाई से दूर जाने के लिए हम किसी कि तलाश में डूब जाते है.
यकीनन तन्हाई के ये दो पहलु बहुत ही रोचक हैं. जब कभी भी सोचती हूँ कि आखिर तन्हाई को लेकर लोगो का नजरिया नकारात्मक क्यों है तो लगता है शायद लोग समझते है कि अकेलापन आपको मायूसी देता है, लेकिन हमेशा तो ऐसा नहीं होता. इस तन्हाई में आप कितना ही वक़्त अपने आपके बारे में सोचने में बिता देते हैं और तब आपको पता चलता है कि आखिर आप जीवन में क्या चाहते और क्या पा रहे हैं?
जिंदगी हर मोड़ पर नयी करवट लेती है, ऐसे में पता ही नहीं चाहता कि आखिर हमें जीवन में क्या चाहिए? ऐसा क्या है जो वाकई हमें ख़ुशी देगा और इन सबके बारे में सोचने के लिए हमें अपने लिए वक़्त निकलना होगा. तभी तो जान पायेगे कि हमारी प्राथमिकतायें क्या हैं? ऐसे में तन्हाई ही है जो समझा सकती है कि आपको किस चीज कि जरुरत है.
अपनी तन्हाई में बैठे हुए हम ढेरों सपने मन में पाल लेते है और तब अहसास होता है कि इस व्यस्त जिंदगी में हम क्या पीछे छोड़ चले थे.
आज जब तन्हाई के बारे कुछ कहने का मौका मिला है तो मुझे भी पहले तन्हाई कि ही जरुरत पड़ी ताकि जान सकू कि तन्हाई कि क्या अहमियत है इस जीवन में...

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

तेलंगाना कि मांग...

देश में एक बार फिर से एक नया राज्य बनाने का मामला तूल पकड़ने लगा है. वैसे तेलंगाना मुद्दा कई दशको से आंध्र प्रदेश कि राजनीति में गरमाया हुआ है. सरकार किसी भी दल कि रही हो किसी ने भी इस समस्या का हल नहीं निकला है. बेहतर निर्णय नहीं लेने कि वजह से ही आंध्र प्रदेश कि राजनीति इस मोड़ पर पहुँच गई है. आंध्र प्रदेश में सत्तारुड कांग्रेस पार्टी के ही ११ मंत्रियो और ८६ विधायकों ने इस्तीफे दे दिए है. अपने इस्तीफे सीधे विधानसभ अध्यक्ष को देकर इन लोगो ने ये तो साबित कर ही दिया है कि ये सब महज ड्रामा नहीं है, बल्कि वे तेलंगाना मुद्दे पर गंभीर हैं. ये मुद्दा वैसे भी आंध्र प्रदेश कि राजनीति में नया नहीं है. दशकों से अपना राजनीतिक हित देखते हुए हर सत्तारुड दल इस मामले में चुप्पी साधे हुए है.
वैसे, मामला अलग राज्य के समर्थन या विरोध का नहीं है, बल्कि राजनीतिक ढील का है. सिर्फ राजनेता ही नहीं बल्कि प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी भी इसके ज़िम्मेदार हैं. राजनेता तो वैसे भी हर मुद्दे पर सिर्फ राजनीति ही कर सकते हैं, लेकिन नौकरशाही को तो कम से कम सही स्थिति सामने लानी चाहिए. अगर वे ही सजग होकर को साफ करेंगे और अपनी ठोस राय सरकार के सामने रखेंगे तो शायद सरकार भी इस मसले को टाल ना सके.
बेहतर तो यही होगा कि भारत सरकार इस मुद्दे पर जल्द ही कोई फैसला ले. वरना फिर कोई नेता अनशन करेगा तो कोई इस्तीफा देगा. वैसे इस बार के इस्तीफे स्वीकार कर लिए गए तो परेशनी राज्य सरकार के लिए ही खड़ी होगी. हालात काबू से बाहर गए तो यहाँ राष्टपति शाषण भी लगाया जा सकता है. ऐसे में समस्या हल नहीं तलाशा गया तो स्थिति ओर भी भयावह होगी. ऐसे में उचित यही होगा कि एक अलग राज्य बनाकर उसके विकास को गति दी जाए.

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

थम गई सांसे...

गुरुवार का दिन राजस्थान के चिकित्सा व्यवस्था के लहजे से काफी बुरा रहा. सारे सरकारी चिकित्सक हड़ताल पर चले गए. प्रदेश भर में चिकित्सा व्यवस्था ठप हो गई. अस्पतालों में मरीज तड़प रहे थे. भगवन का दूसरा रूप माने जाने वाले चिकित्सक इन सब बातो से परे अपनी जिद पर अड़े रहे. नतीजा ये निकला कि अकेले प्रदेश कि राजधानी जयपुर में ३० ओप्रेतिओं टाले गए. सीकर जिले में तो दिमागी बुखार से तड़पती एक मासूम लड़की ने अपने घर वालो कि गोद में ही दम तोड़ दिया. सिरोही में एक नवजात को मौत होगई.
प्रदेश भर में करीब ९ हजार सरकारी चिकित्सक मौजूद है, लेकिन उनकी मनमर्जी कि कीमत मासूमों को अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी. पूरे दिनभर मरीजों के परिजनों कि जान पर बनी रही.वे मदद के लिए यहाँ से वहां बदहवास से घूमते रहे, लेकिन सिर्फ निराशा ही उनके हाथ लगी.
हालाँकि, शुक्रवार को ये चिकित्सक काम पर लौटे आये, लेकिन उनकी मांगे अगर पूरी नहीं हुई तो वे १२ दिन बाद फिर हड़ताल पर चले जायेगे. चिकित्सक चाहते हैं कि उनका वेतनमान केन्द्र के वेतनमान के सामान हो. चिकित्सा सेवाओं को पंचायतीराज विभाग के अधीन नहीं रखा जाए. अस्पतालों का सञ्चालन एक ही पारी में किया जाए और अस्पताल परिसर में चिकितासको के साथ मारपीट को गैर जमानती रखा जाए.
अब इनकी मांगों कि लिस्ट तो काफी लम्बी है और सभी मांगें भी उचित नहीं है. कायदे कानून के हिसाब से चिकित्सक उस मरीज के इलाज से मन नहीं कर सकते जिसे तुरंत इलाज कि जरुरत है. फिर भी इनकी मनमानी जारी है. सुप्रेम कोर्ट भी इस तरह के गैर-ज़िम्मेदारान रवैये के लिए चिकित्सक वर्ग को फटकार लगा चुकी है, लेकिन फिर भी वही बुरा हाल है.
चिकित्सकों को हड़ताल के अलावा अपनी मांगे मनवाने का कोई और रास्ता निकालना चाहिए, वरना उन्हें भगवन को अहौदा देने वाले मरीज उन्हें किसी हत्यारे से कम नहीं मानेंगे.