शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

सपनों से भरे नैना...

''सपनों से भरे नैना ना नींद है ना चैना...'' सच ही तो है जब आँखों में सपने हो तो भला नींद कि उसमें जगह ही कहाँ रह जाती है. कुछ कर गुजरने का जज्बा आपको चैन ही नहीं लेने देता. दिलो दिमाग में हजारों अरमान जब जन्म लेते है तो किसी और चीज के लिए फिर जगह ही नहीं बचती है. ये सपने देखना कितना आसन है ना... लेकिन जब इन्हें पूरा करने का वक़्त आता है तो हजारो रूकावटे सामने खड़ी नजर आती हैं. हम सोचते है और सब कहते भी हैं कि इरादा मजबूत और नेक हो तो हर मुसीबत का सामना आसानी से किया जा सकता है, लेकिन कई बार हमारे पैर कुछ ऐसे बंधनों से बंधे होते हैं जिनसे मुक्ति नहीं पाई जा सकती, क्योंकि कही ना कही वही बंधन हमारी ताकत भी है.
जब ये ताकत ही साथ ना रहे तो फिर सपने कैसे पूरे होंगे भला.... हां लेकिन ये भी सच है कि अगर सपनो से सच्चा प्यार है तो उन्हें पूरा करने के लिए कोई ना कोई तो रास्ता खोजना ही पड़ता है. ऐसे में हमें अपनी मंजिल को तय करने का शायद रास्ता बदलना पड़े. कोई ऐसा हो जो हिम्मत बढ़ाये सही गलत का अंतर समझाए तो राह आसन हो जाती है, लेकिन ऐसे इन्सान का साथ मिलना भी तो मिलना आसन भी नहीं है.
अब जब सपने देखे हैं तो इन्हें पूरा करने का वक़्त भी आ गया है और कुछ कोशिशे भी शुरू हो गई है अब देखना ये है कि सपने हकीकत में कब बदलते हैं....

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

मैं और मेरी तन्हाई ...

तन्हाई कभी-कभी ये आपको बहुत सुकून देती है तो कभी-कभी बहुत अखरती है. सबके बीच होकर भी जब आप तन्हा महसूस करो तो ये परेशानी है और जब कि किसी कि याद में तन्हा रहना चाहो तो शायद ये किसी नए रिश्ते की शुरुआत की आहट.
जब तन्हाई में हम किसी बारे में सोचते है तो एक अलग ही दुनिया में चले जाते है जहाँ ना तो किसी तरह के बंधन हैं और ना कि किसी तरह का संकोच. कभी-कभी ये तन्हाई भी इतनी ख़ुशी देती ही अपनों का साथ भी कम लगने लगता है, तो कभी-कभी इस तन्हाई से दूर जाने के लिए हम किसी कि तलाश में डूब जाते है.
यकीनन तन्हाई के ये दो पहलु बहुत ही रोचक हैं. जब कभी भी सोचती हूँ कि आखिर तन्हाई को लेकर लोगो का नजरिया नकारात्मक क्यों है तो लगता है शायद लोग समझते है कि अकेलापन आपको मायूसी देता है, लेकिन हमेशा तो ऐसा नहीं होता. इस तन्हाई में आप कितना ही वक़्त अपने आपके बारे में सोचने में बिता देते हैं और तब आपको पता चलता है कि आखिर आप जीवन में क्या चाहते और क्या पा रहे हैं?
जिंदगी हर मोड़ पर नयी करवट लेती है, ऐसे में पता ही नहीं चाहता कि आखिर हमें जीवन में क्या चाहिए? ऐसा क्या है जो वाकई हमें ख़ुशी देगा और इन सबके बारे में सोचने के लिए हमें अपने लिए वक़्त निकलना होगा. तभी तो जान पायेगे कि हमारी प्राथमिकतायें क्या हैं? ऐसे में तन्हाई ही है जो समझा सकती है कि आपको किस चीज कि जरुरत है.
अपनी तन्हाई में बैठे हुए हम ढेरों सपने मन में पाल लेते है और तब अहसास होता है कि इस व्यस्त जिंदगी में हम क्या पीछे छोड़ चले थे.
आज जब तन्हाई के बारे कुछ कहने का मौका मिला है तो मुझे भी पहले तन्हाई कि ही जरुरत पड़ी ताकि जान सकू कि तन्हाई कि क्या अहमियत है इस जीवन में...

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

तेलंगाना कि मांग...

देश में एक बार फिर से एक नया राज्य बनाने का मामला तूल पकड़ने लगा है. वैसे तेलंगाना मुद्दा कई दशको से आंध्र प्रदेश कि राजनीति में गरमाया हुआ है. सरकार किसी भी दल कि रही हो किसी ने भी इस समस्या का हल नहीं निकला है. बेहतर निर्णय नहीं लेने कि वजह से ही आंध्र प्रदेश कि राजनीति इस मोड़ पर पहुँच गई है. आंध्र प्रदेश में सत्तारुड कांग्रेस पार्टी के ही ११ मंत्रियो और ८६ विधायकों ने इस्तीफे दे दिए है. अपने इस्तीफे सीधे विधानसभ अध्यक्ष को देकर इन लोगो ने ये तो साबित कर ही दिया है कि ये सब महज ड्रामा नहीं है, बल्कि वे तेलंगाना मुद्दे पर गंभीर हैं. ये मुद्दा वैसे भी आंध्र प्रदेश कि राजनीति में नया नहीं है. दशकों से अपना राजनीतिक हित देखते हुए हर सत्तारुड दल इस मामले में चुप्पी साधे हुए है.
वैसे, मामला अलग राज्य के समर्थन या विरोध का नहीं है, बल्कि राजनीतिक ढील का है. सिर्फ राजनेता ही नहीं बल्कि प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी भी इसके ज़िम्मेदार हैं. राजनेता तो वैसे भी हर मुद्दे पर सिर्फ राजनीति ही कर सकते हैं, लेकिन नौकरशाही को तो कम से कम सही स्थिति सामने लानी चाहिए. अगर वे ही सजग होकर को साफ करेंगे और अपनी ठोस राय सरकार के सामने रखेंगे तो शायद सरकार भी इस मसले को टाल ना सके.
बेहतर तो यही होगा कि भारत सरकार इस मुद्दे पर जल्द ही कोई फैसला ले. वरना फिर कोई नेता अनशन करेगा तो कोई इस्तीफा देगा. वैसे इस बार के इस्तीफे स्वीकार कर लिए गए तो परेशनी राज्य सरकार के लिए ही खड़ी होगी. हालात काबू से बाहर गए तो यहाँ राष्टपति शाषण भी लगाया जा सकता है. ऐसे में समस्या हल नहीं तलाशा गया तो स्थिति ओर भी भयावह होगी. ऐसे में उचित यही होगा कि एक अलग राज्य बनाकर उसके विकास को गति दी जाए.

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

थम गई सांसे...

गुरुवार का दिन राजस्थान के चिकित्सा व्यवस्था के लहजे से काफी बुरा रहा. सारे सरकारी चिकित्सक हड़ताल पर चले गए. प्रदेश भर में चिकित्सा व्यवस्था ठप हो गई. अस्पतालों में मरीज तड़प रहे थे. भगवन का दूसरा रूप माने जाने वाले चिकित्सक इन सब बातो से परे अपनी जिद पर अड़े रहे. नतीजा ये निकला कि अकेले प्रदेश कि राजधानी जयपुर में ३० ओप्रेतिओं टाले गए. सीकर जिले में तो दिमागी बुखार से तड़पती एक मासूम लड़की ने अपने घर वालो कि गोद में ही दम तोड़ दिया. सिरोही में एक नवजात को मौत होगई.
प्रदेश भर में करीब ९ हजार सरकारी चिकित्सक मौजूद है, लेकिन उनकी मनमर्जी कि कीमत मासूमों को अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी. पूरे दिनभर मरीजों के परिजनों कि जान पर बनी रही.वे मदद के लिए यहाँ से वहां बदहवास से घूमते रहे, लेकिन सिर्फ निराशा ही उनके हाथ लगी.
हालाँकि, शुक्रवार को ये चिकित्सक काम पर लौटे आये, लेकिन उनकी मांगे अगर पूरी नहीं हुई तो वे १२ दिन बाद फिर हड़ताल पर चले जायेगे. चिकित्सक चाहते हैं कि उनका वेतनमान केन्द्र के वेतनमान के सामान हो. चिकित्सा सेवाओं को पंचायतीराज विभाग के अधीन नहीं रखा जाए. अस्पतालों का सञ्चालन एक ही पारी में किया जाए और अस्पताल परिसर में चिकितासको के साथ मारपीट को गैर जमानती रखा जाए.
अब इनकी मांगों कि लिस्ट तो काफी लम्बी है और सभी मांगें भी उचित नहीं है. कायदे कानून के हिसाब से चिकित्सक उस मरीज के इलाज से मन नहीं कर सकते जिसे तुरंत इलाज कि जरुरत है. फिर भी इनकी मनमानी जारी है. सुप्रेम कोर्ट भी इस तरह के गैर-ज़िम्मेदारान रवैये के लिए चिकित्सक वर्ग को फटकार लगा चुकी है, लेकिन फिर भी वही बुरा हाल है.
चिकित्सकों को हड़ताल के अलावा अपनी मांगे मनवाने का कोई और रास्ता निकालना चाहिए, वरना उन्हें भगवन को अहौदा देने वाले मरीज उन्हें किसी हत्यारे से कम नहीं मानेंगे.

बुधवार, 29 जून 2011

शर्मनाक...

देश के सबसे बड़े विश्व्विधायलों में से एक है हमारा राजस्थान विश्व्विधायालय. आज जो कुछ भी वहां के बारे में सुना और पढ़ा उससे तो मन शर्मसार हो गया. पीएचडी कराने के नाम पर अस्मत मांगने वाले प्रोफ़ेसर ने ना केवल शिक्षा जगत को शर्मसार किया है बल्कि गुरु शिष्य के पवित्र रिश्ते को भी दागदार कर दिया है. हाय रे हमारी किस्मत ... लड़की होना भी एक अपराध हो गया है.
अभी दो दिन पहले ही सीकर के एक नर्सिंग कॉलेज में भी कुछ ऐसा ही वाकया घटा था. समझ नहीं आ रहा है कि शिक्षा के मंदिरों में ये सब क्या चल रहा है? क्यों गुरु खुद ही अपने पद कि गरिमा को कलंकित कर रहे हैं? ऐसे गुरु को तो गुरु कहना भी उचित नहीं है. ऐसे लोग तो समाज में शराफत का नकाब पहने हुए दरिन्दे है. एक छात्रा को पीएचडी करने के नाम पर रिश्वत के साथ अस्मत मांगना आखिर किस गुरु का अधिकार है. रिश्वत का ये नया रूप तो काफी घिनौना है.
अब तो जो लड़कियां घर से बाहर निकलने से इसलिए डरती थी कि उन्हें राह चाहते सिरफिरे परेशान करते हैं, लगता है वो अब अपना शिक्षा का मौलिक अधिकार पाने के लिए शिक्षण संस्थाओं तक पहुँचाने से पहले भी दस बार सोचेंगी. लड़कियों में से इस डर को बाहर निकलने के लिए ऐसे अपराधियों को तो बड़ी कठोर सजा deni चाहिए. वैसे इन दोनों ही मामलों में राजस्थान पुलिस ने जो काम किया है वो वाकई तारीफे काबिल है. बस अब जरुरत इस बात कि है कि ये दोनों ही मामले अदालत तक अपने वास्तविक रूप में ही पहुंचे. चोट खाई हुई इन दोनों छात्राओं को न्याय मिल सके और उन दरिंदो को कड़ी सजा.
वैसे ऐसे मामलों ने भारतीय महिलाऐं कम ही मुंह खोलती हैं और अगर वे हिम्मत जुटा भी ले तो घर वाले और समाज उन्हें चुप करा देता है. ऐसे में बस जरुरत इस बात कि है कि समाज और परिवार ऐसी महिलाओं का हर कदम पर साथ दे और उनकी हिम्मत बढाये. हालाँकि, पिछले कुछ सालो में ऐसे मामलों के लिए कड़े कानून बनाये गए है, लेकिन फिर भी देश भर में ऐसे मामलों कि तादाद बढ़ी ही है. ऐसे में ये जरुरी हो गया है कि कानून के साथ समाज भी ऐसे दोषियों के खिलाफ कड़े कदम उठाये.
वही महिलाओं को भी अपनी सुरक्षा के लिए जागरूक रहना होगा. किसी भी दबाव में आये बिना अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी ही होगी. तभी वे सुरक्षित जीवन जी सकती हैं.

मंगलवार, 28 जून 2011

जिंदगी कैसी है पहेली?

ज़िन्दगी एक अजीब सी पहेली बनकर रह गई है, बिल्कुल मेरी समझ से परे. हम चाहे किसी को कितना भी समझने का दावा कर ले, लेकिन शायद ये दावे खोखले ही रह जाते हैं. रिश्ता कितना भी गहरा क्यों ना हो उसमे भी उलझने आ ही जाती हैं. हम सोचते है कि जिसे हम सब से ज्यादा प्यार करते हैं वही इन्सान हमें शायद दुनिया में सबसे अच्छी तरह समझता है...लेकिन शायद ये सब बातें बेमानी है.
कोई किसी को नहीं समझ पाया है इस दुनिया में. हर इन्सान मौसम कि तरह रंग बदलने लगा है. किसी कि फितरत पहचानना बहुत मुश्किल काम है. किसी ने कहा था मुझे कि संवाद से सारी समस्याएँ हल हो जाती है, लेकिन संवाद तो उसी के साथ किया जा सकता है ना जो सवालों के जवाब देने को राजी हो. ख़ामोशी कि चादर ओढ़ ले उससे भला संवाद कैसे वाजिब है?
पहले लगता था कि समय हर परेशानी का हल निकाल देता है, लेकिन अब ये बात भी बेमानी लगने लगी है. समय के साथ तो बिना बोले समस्या और भी गहरी हो जाती है. ये भी एक अजीब ही दास्ताँ है कि इन्सान जिससे सबसे ज्यादा प्यार करता है, उसे उसी से सबसे ज्यादा तकलीफ भी मिलती है. भला दो लोग ये कैसे भूल जाते हैं कि उनका रिश्ता कोई कागज को खिलौना नहीं है जिसे जब चाहा नया आकर दे दिया जाए. रिश्ते बदलने पर मन को कितनी तकलीफ होती है, इसका अंदाज़ा वही लगा सकता है जो इसे महसूस कर चुका हो.
आप किसी से बहुत कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन उसे आपकी कोई बात नहीं सुननी. आप ख़ामोशी में अपनी बात बयाँ करने कि कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सामने वाले ने तो आँखे ही मूंद ली है. फिर भला कैसे हो इस अनजानी परेशानी का हल?
सवालों का बवंडर उठा है मन में, लेकिन इन्हें शांत करने वाला बेफिक्र होकर बैठा है...

रविवार, 26 जून 2011

'छोड़ आये हम वो गलियां ...''

मिस यू जयपुर.
आज तुम बहुत याद आ रहे हो. किसी खास से बातो-बातो में तुम्हारा ज़िक्र चल पड़ा और फिर क्या था पुरानी यादे ताजा हो उठी. वो कॉलेज कि मस्ती, वो दोस्तों का साथ, वो राजापार्क के गोलगप्पे, वो बापू बाज़ार कि शौपिंग. बिरला मंदिर में वक़्त गुजरना, गौरव टोवएर में घूमना. वो पल भी क्या पल थे, अब तो बस यादें बची हैं. किसी ने सच ही कहा है कि आप दुनिया के किसी भी कौने में भले ही चले जाओ पर अपनी मिटटी तो अपनी ही होती है.
उस शहर से ऐसी यादें जुडी हैं जो भूले नहीं भुलाई जाती. वक़्त गुजर गया, लेकिन यादें आज भी उतनी ही ताजा है. काश वो पुराने दिन फिर से लौट आये. घर कि छत पर खड़े होकर नाहरगढ़ के किले को निहारना मुझे बहुत पसंद था. वहा से डूबता हुआ सूरज बहुत कुछ कह जाता था. शाम को ऑफिस से घर लौटने के बाद जब खाली होती थी तो आसमान को निहारती हुई सोचती थी कि क्या कभी में उन बुलंदियों को छु पाऊँगी जो कि मेरा सपना है.... लेकिन सपना तो सपना ही रह गया.
अब एक बार फिर से उन्ही सपनों में रंग भरने कि प्रेरणा मिली है. लगता है किसी कि उम्मीदों को पूरा करने का समय आ गया है. अगर उस प्रेरणादायक इन्सान का साथ रहा तो शायद अब मंजिल दूर नहीं है.

शनिवार, 25 जून 2011

मन बावरा...

'' दिल संभल जा ज़रा फिर मोहब्बत करने चला है तू,
दिल यही रुक जा ज़रा, फिर मोहब्बत करने चला है तू.....''
बहुत ही खुबसूरत सोंग है. बहुत पसंद आया मुझे तो. वैसे एक बात तो है भले ही इमरान हाशमी कि फिल्मे बेहूदी होती हैं, लेकिन इनके सोंग्स तो कमाल होते हैं. आज दिन भर करने को कुछ खास नहीं था तो सोचा क्यों ना अपने संगीत के शौक को ही थोडा वक़्त दिया जाए. कई फिल्मों के सोंग्स सर्च कर डाले. ये गाने भी कमाल कि चीज है आपको अपने से दूर कर देते हैं. जब दिल को सुकून देने वाला कोई भी संगीत सुनते हैं तो मन तो ना जाने कौन सी ही दुनिया में चला जाता है. दिल के किसी कोने में फैली उदासी फिर से मन को कचोटने लगती है. वैसा ऐसा तो सबके साथ ही होता होगा ना! आपके आस पास बहुत से ऐसे लोग है जो आपको ख़ुशी देते है, लेकिन फिर भी ये उदासी है कि कम होने का नाम ही नहीं लेती है. सच ही कहा है कहने वाले ने
मन बावरा तुझे दूँनता... पाने कि खोने कि पैमैशे ... ज़ीने कि सारी मेरी खावैशे
आसमां ये जहा सब लगे ठहरा ... मन बावरा तुझे दुनता ..''
क्या कमाल गीत है.. अब तो आँखे ही भर आई है. राहत फतह अली साहब ने क्या खूब गया है. मै तो भावुक हो गई. सच में दिल पर उमर कि कोई सीमा नहीं है ये तो हर वक़्त बच्चा ही रहता है. बस ये तो दिमाग ही है जो हमें दुनियादारी कि सीमाओ में बांधे रखता है.
आज मन कर रहा है कि किसी दूसरी ही दुनिया में खो जाऊ.जहाँ किसी तरह कि कोई रोकटोक ही ना हो. मन अपनी कर सके... अब अपने आपको और मन कि भावनों को व्यक्त करने के शब्द खत्म हो रहे है, इसलिए अभी इस विषय को यही विराम देना होगा ...

हाय रे मंहगाई ...

''सखी सैया तो खूब ही कमात है मंहगाई दायाँ खाए जात है ...'' फिल्म ''पीपली लाइव'' का ये गाना आज के परिपेक्ष्य में कितना सार्धक है. हाय रे मंहगाई, लगता है अब तो तू जान लेकर ही रहेगी. क्या होगा आमजन का? हम भला कितनी ही चिंता में मर जाए, लेकिन कांग्रेस सरकार के कान पर तो जू भी नहीं रेंगने वाली. भला हो, मैडम सोनिया का जिन्होंने हमारे मुंह से निवाला छिनने कि पूरी तैयारी कर ली है. पिछले चार सालो में मंहगाई ३० फीसदी बढ़ चुकी है.
ये तो सभी जानते हैं कि प्याज काटने से आँखों में आंसू आते हैं, लेकिन लगता है कि अब तो गैस का चूहला चालू करने से पहले भी यही हाल होगा. जब सरकार सत्ता में आई थी तब पेट्रोल के दाम ३५ रुपये था और अब ६४ रुपये. समझ नहीं आता जब रिज़र्वे बैंक मंहगाई घटाने के तरीके बता रहा है तो भला ये सरकार क्यों नहीं इन्हें अपना रही? सिर्फ कुछ बड़ी कंपनियों को फायदा पहुँचाने के लिए आमजन के साथ नाइंसाफी हो रही है. पूरे देश में जनता सडको पर उतर कर बढे दामो का विरोध कर रही है, लेकिन बेशर्म सरकार को देखिये कि उनकी तरफ से अभी तक कोई सतेटमेंट नहीं आया है.
मानसून तो अभी पूरी तरह देश में नहीं आया है, लेकिन उससे पहले ही देश में मंहगाई का बादल ज़रूर फट गया है. सरकार ने आम आदमी कि कमर तो तोड़ ही दी है, साथ ही साथ परिवहन भाडा और सब्जियों के दामो में ५ से १० फीसदी कि बढोतरी ने जनता को दोहरी मार दी है.सरकार जहा बढ़ते हुए राजस्व से खुश है, वही उन्हें ये भी सोचना चाहिए कि वो सिर्फ कुछ चुनिन्दा लोगो के लिए करोड़ों लोगे के साथ अन्याय कर रही है. आज ही एक अख़बार में पढ़ा कि वर्ष २०१० में देश में करोड़पतियों कि संख्या १ लाख ५३ हजार तक पहुच गई थी, लेकिन ये तो हमारे देश का एक छोटा सा ही हिस्सा है. देश के करोड़ों परिवार तो आज मंहगाई कि तेज रफ़्तार का शिकार बन रहे है. वैसे अन्ना हजारे और बाबा रामदेव तो भ्रष्टाचार को मिठाने के लिए अनशन पर बैठे थे, लेकिन अगर इसी रफ़्तार से मंहगाई बढती रही तो गरीबी से जनता वैसे ही अनशन पर हमेश के लिए बैठ जाएगी.

बुधवार, 22 जून 2011

हक़ कि लड़ाई जारी रहेगी

महिला आरक्षण बिल बार फिर से झमेले में पड़ गया है. लगता है देश के ये राजनीतिक दल इसे यूँ ही पारित नहीं होने देंगे. एक बार फिर से लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार कि कोशिशों पर पानी फिर गया. बुधवार को हुई बैठक बेनतीजा रही. सपा और बसपा ने जहाँ बैठक का विरोध किया वहीँ राजद और शिवसेना के अड़ियल रुख के कारण बिल पर सहमती बनाने कि पहल नाकाम रही. कुल मिलाकर लगता है कि हर कोई अब भी महिलाओं को घर कि चौखट में ही बांधे रखना चाहता हैं. पहले बिल को लोकसभा में पारित करवाने के नाम पर खूब हंगामा किया गया और लगता है अब बारी राज्यसभा कि है. राजनीतिक दलों को महिलाओं के लिए टिकट आरक्षित करना चाहिए, इसको लेकर हर दल अपनी अलग अलग राय रखता है. ऐसे में लगता है आगे विचार विमर्श जारी रखना होगा. संसद के मानसून सत्र से पहले एक और बैठक बुलाई जायेगी. बिल के मौजूदा प्रारूप पर सवाल उठाते हुए जो दल कोटे के भीतर कोटे ही हिमायत कर रहे है वो शायद भूल रहे हैं कि अब तक जो महिलाये राजनीति में पहुंची हैं उन्हें तो कोई आरक्षण नहीं मिला है. महिला में इतनी ताकत और ज़ज्बा है कि उसे इसकी जरुरत भी नहीं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम अपने हक़ को पाने से पीछे रह जाएँ.

मेरी ज़ुबानी........ दिल से

नमस्कार,
आज वो दिन आ ही गया जिसका मैं कब से इंतजार कर रही थी. पिछले दो साल से सोच रही थी की अपना ब्लॉग बना लूँ, लेकिन वक़्त की कमी कहिये या फिर मान का डर मैं ब्लॉग बना ही नहीं पाई. आज किसी ने फिर से मुझे हौसला दिया तो मन ने ठान ही लिया की अब तो इस काम का श्रीगणेश करना ही है. इसी हौसला अफजाई का नतीजा है की मैं भी ब्लॉग की दुनिया में प्रवेश कर चुकी हूँ.
''खामोश शब्द'' के ज़रिये मैं मन की उन परतो को खोलना चाहती हूँ जो न जाने कब से दिल में कैद हैं. ये मेरा पहला पोस्ट है इसीलिए कुछ घबरा भी रही हूँ क्यूंकि ना जाने ये उस इन्सान को कैसा लगेगा जिन्होने मुझे ब्लॉग बनाने के लिए आज फिर से प्रेरित किया है.
दुनिया में हमारे इर्दगिर्द बहुत कुछ है. कहीं खुशिया है तो कहीं उदासी.सोच रही हूँ किसे अपने ब्लॉग का विषय चुनू अभी इसी उलझन में हूँ.
वैसे लिखने को तो बहुत कुछ है ................लेकिन ये सारे दोस्त है कि लिखने ही नहीं दे रहे सब के सब अभी ही ऑनलाइन आ गए है उम्मीद है कल कुछ बेहतर लिख सकू........